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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

५३.चिड़िया

चिड़िया, बहुत अच्छा लगता है
सुबह-सुबह मेरी खिड़की पर
तुम्हारा ज़ोर-ज़ोर से,
अधिकार से चहचहाना.

मैं आँखें बंद करके 
महसूस करता  हूँ तुम्हारी आवाज़, 
फिर निहारता हूँ तुम्हें 
जब तक तुम फुर्र नहीं हो जाती.

चिड़िया, तुम खूब खिड़की पर आया करो,
खूब चहचहाया करो,
यहाँ तक कि रातों को भी,
नींद उड़ा दो मेरी 
ताकि चैन आ जाय मुझे.

ईंट-पत्थर के इस जंगल में 
कहाँ दिखती हो तुम,
दिखती भी हो तो गुमसुम,
चिड़िया,आजकल तुम्हारी आवाज़ 
सुनाई कहाँ पड़ती है ?

शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

५२.मिट्टी

अच्छी-भली पड़ी थी मैं
अपने शांत कोने में,
मुलायम घास के नीचे,
पहाड़ी की गोद में.

तुमने फावड़ा चलाया,
विस्थापित किया मुझे,
तोडा-फोड़ा, कीचड़ बनाया,
फिर छोड़ दिया यूँ ही.

अब ज़रा रहम खाओ,
गागर बना दो मुझे,
जिसमें पानी भरकर 
गांव की औरत 
रख ले मुझे सर पर 
या कोई सुन्दर मूरत 
जिसे सजा दे कोई मंदिर में.

चलो, कोई मामूली-सा खिलौना बना दो,
जिससे बच्चे खेलें कुछ दिन,
फिर तोड़ दें ठोकर मारकर 
या फेंक दें कूड़ेदान  में.

कुछ तो आकार दो मुझे,
अर्थ दो मेरे जीवन को,
पर्वत और घास से अलग होकर
कुछ तो बन जाऊं मैं 
किसी के कुछ तो काम आऊं मैं.

रविवार, 14 अक्तूबर 2012

५१. गुमशुदा

कल रात सपने में 
कुछ विचार चले आए 
मेरे पास भूले-भटके.
मैंने उन्हें रोका,
कविता में ढाला,
बस कलम-दवात लेकर 
कागज़ पर उतारने ही वाला था 
कि कविता गायब हो गई.
न जाने कहाँ खो गई,
बहुत खोजा, पर मिली ही नहीं.
ध्यान रखना,
कहीं दिखे तो बताना,
पर इतना याद रखना 
कि वह कविता मेरी है, सिर्फ मेरी,
किसी और की नहीं.
अगर कहीं मिल जाय,
तो ईमान बनाए रखना,
मुझे हिफाज़त से सौंप जाना.